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Class 10 Chapter 1 शुचिपर्यावरणम् explanation and summary


दुर्वहमत्र जीवितं जातं प्रकृतिरेव शरणम्। शुचि-पर्यावरणम्।। महानगरमध्ये चलदनिशं कालायसचक्रम्। मन: शोषयत् तनु: पेषयद् भ्रमति सदा वक्रम्।। दुर्दान्तैर्दशनैरमुना स्यान्नैव जनग्रसनम्। शुचि...।।1।।

अर्थ-

यहाँ जीवित रहना (जीवन) कठिन हो गया है, अब प्रकृति ही हमारी शरण है, शुद्ध पर्यावरण ही हमारी शरण है। महानगरों के बीच रात-दिन काला लोहे का पहिया (चक्का) चल रहा है, जो मन को सुखाते हुए और शरीर को पीसते हुए सदा टेढ़ा चलता रहता है। इसके द्वारा (इससे) अपने कठोर (भयानक) दातों से जनता का नाश न हो, इसलिए शुद्ध पर्यावरण ही हमारी शरण है।


शब्दार्थाः

दुर्वहम् = कठिन

जीवितम् =जीवन

जातम् =हो गया है

शुचिः =पवित्र (शुद्ध)

महानगरमध्ये =महानगरों के बीच में

चलत् = चलते हुए

अनिशम = रात-दिन

कालायसचक्रम् = काला लोहे का पहिया

शोषयत् = सुखाते हुए

तनुः = शरीर को

पेषयत् = पीसते हुए

वक्रम् = टेढ़ा

दुर्दान्तैः = कठोर (भयानक)

दशनैः = दाँतों से

अमुना = इसके द्वारा

जनग्रसनम् = जनता का नाश


सन्धिः विच्छेदो वा —













प्रकृतिप्रत्ययोः विभाजनम् —












समासो विग्रहो वा —











विपर्ययलेखनम् —














कज्जलमलिनं धूमं मुञ्चति शतशकटीयानम्। वाष्पयानमाला संधावति वितरन्ती ध्वानम्।। यानानां पङ्क्तयो ह्यनन्ता: कठिनं संसरणम्। शुचि...।।2।।

अर्थ-

(आज देश में) सैकड़ों मोटर गाड़ियाँ काजल की तरह मैले (काले) धुएँ को छोड़ रही हैं। अनेकानेक रेलगाड़ियाँ चारों ओर शोर करती हुईं दौड़ रही हैं। गाड़ियों की पंक्तियाँ अंनत हैं, जिससे चलना कठिन हो गया है। इसलिए शुद्ध पर्यावरण ही हमारी शरण है।

शब्दार्थाः —

कज्जलमलिनम् = काजल की तरह काले

धूमम् = धुएँ को

मुञ्चति = छोड़ती है

शतशकटीयानम् = सैकड़ों मोटर गाड़ियाँ

वाष्पयानमाला = रेलगाड़ियों की पंक्तियाँ

संधावति = दौड़ रही हैं

वितरन्ती = फैलाती हुई

ध्वानम् = शोर को

यानानाम् = गाड़ियों की

अनन्ताः = अनंत (अनगिनत) हैं

संसरणम् = चलना


सन्धिः विच्छेदो वा —








प्रकृतिप्रत्ययोः विभाजनम् —







समासो विग्रहो वा —










विपर्ययलेखनम् —

पदानि विपर्ययपदानि

मलिनम् उज्ज्वलम्

मुञ्चति ग्रह्णाति

वितरन्ती ग्रह्णन्ती

कठिनम् सरलम्


वायुम.डलं भृशं दूषितं न हि निर्मलं जलम्। कुत्सितवस्तुमिश्रितं भक्ष्यं समलं धरातलम्।। करणीयं बहिरन्तर्जगति तु बहु शुद्धीकरणम्। शुचि...।।3।।

अर्थ-

आज वायुमंडल बहुत प्रदूषित हो गया है और जल (पानी) भी शुद्ध नहीं रहा। सारी खाने योग्य वस्तुएँ आज अशुद्ध (विषैली) वस्तुओं से मिलावटी हो गईं हैं तथा सारी धरती मैली (अशुद्ध) हो चुकी है। इन सभी अशुद्धियों (मैल) को दूर बाहर करके अंतर्जाल अर्थात् मन व बुद्धि आदि को बहुत अधिक शुद्ध करना चाहिए। इसलिए शुद्ध पर्यावरण ही हमारी शरण है।


शब्दार्थाः

भृशम् = अत्यधिक

दूषितम् =प्रदूषित

कुत्सितम् = गलत

भक्ष्यम् =खाने योग्य वस्तु

समलम् = मैली

धरातलम् = धरती

जगति = संसार में

शुद्धीकरणम् =शुद्धता


सन्धिः विच्छेदो वा —






प्रकृतिप्रत्ययोः विभाजनम् —










समासो विग्रहो वा —











विपर्ययलेखनम् —

पदानि विपर्ययपदानि

समलम् = निर्मलम्

बहिः = अन्तः

भक्ष्यम् = अभक्ष्यम्

शुद्धम् = दूषितम्


कञ्चित् कालं नय मामस्मान्नगराद् बहुदूरम्। प्रपश्यामि ग्रामान्ते निर्झर-नदी-पय:पूरम्।। एकान्ते कान्तारे क्षणमपि मे स्यात् सञ्चरणम्। शुचि...।।4।।

अर्थ-

कुछ समय के लिए मुझे इस (प्रदूषित) नगर से बहुत दूर ले चलिए, जहाँ मैं गाँव की सीमा पर जल से भरी

देखू। एकांत जंगल में मेरा क्षणभर के लिए भी भ्रमण होवे। इसलिए शुद्ध पर्यावरण ही हमारी शरण है।


शब्दार्थाः -

कञ्चित् = कुछ

नय = बहुत दूर

प्रपश्यामि = देखू

एकान्ते = एकांत (निर्जन) में

कान्तारे = जंगल में

क्षणमपि = क्षण भर भी

मे = मेरा

स्यात् = हो

सञ्चरणम् = भ्रमण (घूमना)


सन्धिः विच्छेदो वा —








प्रकृतिप्रत्ययोः विभाजनम् —

पदानि प्रकृतिः + प्रत्यय

सञ्चरणम् = सम् + चर् + ल्युट्


पर्यायलेखनम् -

पदानि पर्यायपदानि

समयम् = कालम्

जलम् = पयः

विपिने कानने = कान्तारे

भ्रमणम् = सञ्चरणम्


विपर्ययलेखनम् —

पदानि विपर्ययपदानि

अधिकम् = किञ्चित्

ग्रामात् = नगरात्

अतिसमीपम् = बहुदूरम्

दीर्घसमयम् = क्षणम्


हरिततरूणां ललितलतानां माला रमणीया। कुसमावलि: समीरचालिता स्यान्मे वरणीया।। नवमालिका रसालं मिलिता रुचिरं संगमनम्। शुचि...।।5।।

अर्थ-

हरे भरे वृक्षों की, सुंदर लताओं की सुंदर माला, हवा से हिलाई गई फूलों की पंक्ति (गुच्छे) मेरे लिए सुंदर हो। आम की नई पंक्ति रुचिपूर्वक (मुझे) प्राप्त हो। शुद्ध पर्यावरण ही हमारी शरण है।


शब्दार्थाः —

हरिततरूणाम् = हरे भरे वृक्षों की

ललितलतानाम् = सुंदर लताओं की

माला = पंक्ति

रमणीया = सुंदर

कुसुमावलिः =फूलों की पंक्ति

समीरचालिता = हवा से हिलाई गई

वरणीया = वरण करने योग्य

नवमालिका = नई पंक्ति

मिलिता = प्राप्त हो

संगमनम् = मेल

सन्धिः विच्छेदो वा —






प्रकृतिप्रत्ययोः विभाजनम् —

















समासो विग्रहो वा —









विपर्ययलेखनम् —

पदानि विपर्ययपदानि

पुरातन = नव

अरुचिरम् =रुचिरम्

शुष्क = हरित

ते = मे

पर्यायलेखनम् —

पदानि पर्यायपदानि

वृक्षाणाम् = तरुणाम्

सुन्दरी = रमणीया

पुष्पपंक्तिः = कुसुमावलिः

चयनीया = वरणीया


अयि चल बन्धो! खगकुलकलरव गुञ्जितवनदेशम्। पुर-कलरव सम्भ्रमितजनेभ्यो धृतसुखसन्देशम्।। चाकचिक्यजालं नो कुर्याज्जीवितरसहरणम्। शुचि...।।6।।

अर्थ-

हे मित्र (बंधु भाई) पक्षियों के समूह की आवाज़ से गुंजायमान वन में चलो। नगर की आवाज़ (कोलाहल) से परेशान लोगों को धैर्य के सुख का संदेश दो। नगरों की चकाचौंध भरी दुनिया कहीं हमारे जीवन के रस का हरण न कर ले। इसलिए शुद्ध पर्यावरण ही हमारी शरण है।


शब्दार्थाः —

बन्धो! =. मित्र

चल = चलो

खगकुलकलरव = पक्षियों के समूह की आवाज़ से

गुज्जितवनदेशम् = गुंजायामान वन के स्थानको

पुर-कलरव = नगर के कोलाहल से

सम्भ्रमितजनेभ्यो = भ्रमित लोगों के लिए

धृतसुखसन्देशम् = धैर्य के सुख का संदेश

चाकचिक्यजालम् = चकाचौंध के जाल को

नः = हमारे

जीवितरसहरणम् = जीवन के रस का हरण


सन्धिः विच्छेदो वा —






प्रकृतिप्रत्ययोः विभाजनम् —














समासो विग्रहो वा —













विपर्ययलेखनम् —

पदानि = विपर्ययपदानि

तिष्ठ = चल

शान्तम् = गुञ्जितम्

ग्रामः = पुरः

दुःखसन्देशम् = सुखसन्देशम्

मरणरसहरणम् = जीवितरसहरणम्


पर्यायलेखनम्

पदानि = पर्यायपदानि

मित्र! = बन्धो!

पक्षी = खगः

नगर-कोलाहल = पुर-कलरव

जगमगवातावरणम् = चाकचिक्यजालम्

जीवनम् = जीवितम्


प्रस्तरतले लतातरुगुल्मा नो भवन्तु पिष्टा:। पाषाणी सभ्यता निसर्गे स्यान्न समाविष्टा।। मानवाय जीवनं कामये नो जीवन्मरणम्। शुचि...।।7।।

अर्थ-

पत्थर के तल (नीचे) पर लताएँ, पेड़ और झाड़ियाँ पिसें नहीं। प्रकृति में पथरीली सभ्यता समाविष्ट (सम्मिलित) न हो। मनुष्य के लिए जीवन की कामना करता हूँ, जीवित मृत्यु की नहीं। इसलिए शुद्ध पर्यावरण ही हमारी शरण है।


शब्दार्थाः

प्रस्तरतले = पत्थर के नीचे

लतातरुगुल्माः = बेलें, पेड़ और झाड़ियाँ

पिष्टाः = पिसी हुई

पाषाणी सभ्यता =पत्थरों वाली सभ्यता

निसर्गे = प्रकृति में/ संसार में

स्यात् = हो

समाविष्टा = मिली (सम्मिलित)

कामये = कामना करता हूँ

जीवन्मरणम् = जीवन की समाप्ति


सन्धिः विच्छेदो वा —







प्रकृतिप्रत्ययोः विभाजनम् —











समासो विग्रहो वा —









विपर्ययलेखनम् —


2 Comments

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Guest
Jul 28

It's better

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Guest
Aug 06, 2023
Rated 4 out of 5 stars.

Good

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