Class 10 Chapter 2 बुद्धिर्बलवती सदा explanation and summary
अस्ति देउलाख्यो ग्रामः। तत्र राजसिंहः नाम राजपुत्रः वसति स्म। एकदा केनापि आवश्यककार्येण तस्य भार्या बुद्धिमती पुत्रद्वयोपेता पितुर्गृहं प्रति चलिता। मार्गे गहनकानने सा एकं व्याघ्रं ददर्श। सा व्याघ्रमागच्छन्तं दृष्ट्वा धार्ष्ट्यात् पुत्रौ चपेटया प्रहृत्य जगाद–"कथमेकैकशो व्याघ्रभक्षणाय कलहं कुरुथः? अयमेकस्तावद्विभज्य भुज्यताम्। पश्चाद् अन्यो द्वितीयः कश्चिल्लक्ष्यते।"
अर्थ-
‘देउल' नाम का गाँव था। वहाँ राजसिंह नाम का राजपुत्र रहता था। एक बार किसी ज़रूरी काम से उसकी पत्नी बुद्धिमती दोनों के साथ पिता के घर की तरफ चली गई। रास्ते में घने जंगल में उसने एक बाघ को देखा। बाघ को आता हुआ देखकर उसने धृष्टता से दोनों पुत्रों को एक-एक थप्पड़ मार कर कहा-“एक-एक बाघ को खाने के लिए तुम दोनों क्यों झगड़ा कर रहे हो? इस एक (बाघ) को हीं बाँट कर खा लो। बाद में अन्य दूसरा कोई ढूँढ़ा जाएगा।"
शब्दार्थाः
राजपुत्र =राजा का पुत्र
उपेता =साथ (युक्त)
सघनकानने=घने जंगल में
ददर्श = देखा
धाष्ट्यार्त = ढिठाई से
चपेटया =थप्पड़ से
प्रहृत्य =मारकर
जगाद =कहा
कलहम् =झगड़ा
कुरुथः =(तुम दो) कर रहे हो
विभज्य = बाँट करके
भुज्यताम् = खाना चाहिए
लक्ष्यते = ढूँढा जाएगा/ देखा जाएगा
सन्धिः विच्छेदो वा —
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प्रकृतिप्रत्ययोः विभाजनम् —
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समासो विग्रहो वा —
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पर्यायलेखनम्
पदानि पर्यायपदानि
भार्या = पत्नी, दारा
उपेता = युक्ता
दृष्ट्वा =अवलोक्य
ददर्श = अपश्यत्/दृष्टवान्
चपेटया = करप्रहारेण
प्रह्रत्य = हत्वा
कलहम् = विवादम्
वनम् = काननम्
विपर्ययलेखनम् —
पदानि विपर्ययपदानि
आवश्यकम् = अनावश्यकम्
आगच्छन्तम् = गच्छन्तम्
धाष्र्यात् = विनयात्
कलहम् = स्नेहम्
रक्षणाय = भक्षणाय
द्वितीयः = अद्वितीयः
पश्चाद् = पूर्वम्
एकदा =बहुवारम्
इति श्रुत्वा व्याघ्रमारी काचिदियमिति मत्वा व्याघ्रो भयाकुलचित्तो नष्टः।
निजबुद्ध्या विमुक्ता सा भयाद् व्याघ्रस्य भामिनी।
अन्योऽपि बुद्धिमाँल्लोके मुच्यते महतो भयात्।।
भयाकुलं व्याघ्रं दृष्ट्वा कश्चित् धूर्तः शृगालः हसन्नाह– "भवान् कुतः भयात् पलायितः?"
व्याघ्रः- गच्छ, गच्छ जम्बुक! त्वमपि किञ्चिद् गूढप्रदेशम्। यतो व्याघ्रमारीति या शास्त्रे श्रूयते तयाहं हन्तुमारब्धःपरं गृहीतकरजीवितो नष्टः शीघ्रं तदग्रतः।
शृगालः- व्याघ्र! त्वया महत्कौतुकम् आवेदितं यन्मानुषादपि बिभेषि?
व्याघ्रः- प्रत्यक्षमेव मया सात्मपुत्रावेकैकशो मामत्तुं कलहायमानौ चपेटया प्रहरन्ती दृष्टा।
अर्थ-
यह सुनकर कि यह कोई (बाघ) को मारने वाली है, ऐसा समझकर वह बाघ डर से व्याकुल होकर वहाँ से भाग गया।
वह व्याघ्र (बाघ) की स्त्री अपनी बुद्धि से छूट गई। अन्य बुद्धिमान भी (इसी तरह) अपनी बुद्धि के बल से महान् भय से छूट जाते हैं।डर से व्याकुल बाघ को देखकर कोई धूर्त सियार हँसते हुए बोला-“आप कहाँ से डर कर भाग रहे हो?"
बाघ —जाओ, जाओ, सियार। तुम भी किसी गुप्त प्रदेश (जगह) में छिप जाओ, क्योंकि जो व्याघ्रमारी (बाघमारी) शास्त्रों में सुनी है, उसने मुझे मारना शुरु कर दिया है, परंतु अपने प्राण हथेली पर रखकर मैं उसके आगे से भाग आया।
सियार —बाघ! तुमने बहुत आश्चर्यजनक बात बताई कि तुम मनुष्यों से भी डरते हो?
बाघ —मेरे सामने ही दोनों पुत्रों को एक-एक करके मुझे खाने के लिए झगड़ा करते हुए दोनों को चाँटा मारती हुई मेरे द्वारा देखी गई।
शब्दार्थाः —
नष्ट: =भाग गया
बिभेषि =डरते हो
भामिनी =रूपवती स्त्री
विमुक्ता =छोड़ी गई
मुच्यते =छोड़ी जाती है
महतो =बहुत ज्यादा
हसन् = हँसते हुए
पलायितः = भाग रहे हो
श्रूयते = सुना जाता है
हन्तुम् = मारने के लिए
गृहीतकरजीवितः - हथेली पर प्राण लेकर
कौतुकम् =आश्चर्य
आवेदितम् = बताया
मानुषात् = मनुष्य से
माम् = मुझे
अत्तुम् =खाने के लिए
कलहायमानौ = झगड़ा करते हुए (दो)
चपेटया = थप्पड़ से
प्रहरन्ती =प्रहार करती हुई
दृष्टा = देखी गई
भयाद् =डर से
दृष्ट्वा =देखकर
कश्चित् = कोई
सन्धिः विच्छेदो वा —
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प्रकृतिप्रत्ययोः विभाजनम् —
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समासो विग्रहो वा —
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विपर्ययलेखनम् —
पदानि विपर्ययपदानि
श्रुत्वा = उक्त्वा
प्रत्यक्षम् = परोक्षम्
गच्छ = आगच्छ
भयाद् = निर्भयाद्
हसन् = रुदन्
माम् = त्वाम्
जम्बुकः- स्वामिन्! यत्रास्ते सा धूर्ता तत्र गम्यताम्। व्याघ्र! तव पुनः तत्र गतस्य सा सम्मुखमपीक्षते यदि, तर्हि त्वया अहं हन्तव्यः इति।
व्याघ्रः- शृगाल! यदि त्वं मां मुक्त्वा यासि तदा वेलाप्यवेला स्यात्।
जम्बुकः- यदि एवं तर्हि मां निजगले बद्ध्वा चल सत्वरम्। स व्याघ्रः तथाकृत्वा काननं ययौ। शृगालेन सहितं पुनरायान्तं व्याघ्रं दूरात् दृष्ट्वा बुद्धिमती चिन्तितवती-जम्बुककृतोत्साहाद् व्याघ्रात् कथं मुच्यताम्? परं प्रत्युत्पन्नमतिः सा जम्बुकमाक्षिपन्त्यङ्गल्या तर्जयन्त्युवाच–रे रे धूर्त त्वया दत्तं मह्यं व्याघ्रत्रयं पुरा।विश्वास्याद्यैकमानीय कथं यासि वदाधुना।।इत्युक्त्वा धाविता तूर्णं व्याघ्रमारी भयङ्करा।व्याघ्रोऽपि सहसा नष्टः गलबद्धशृगालकः।।एवं प्रकारेण बुद्धिमती व्याघ्रजाद् भयात् पुनरपि मुक्ताऽभवत्। अत एव उच्यते-बुद्धिर्बलवती तन्वि सर्वकार्येषु सर्वदा।।
अर्थ-
सियार— स्वामी! जहाँ वह धूर्त औरत है, वहाँ जाना चाहिए। हे बाघ! तुम्हारे फिर से वहाँ गए हुए के सामने यदि वह देखेगी, तो तुम मुझे मार देना।
बाघ — सियार! यदि तुम मुझे छोड़कर जाओगे, तो शर्त भी बिना शर्त वाली (समाप्त) हो जाएगी।
सियार — यदि ऐसा है, तो मुझे अपने गले से बाँधकर जल्दी चलो। वह बाघ वैसा करके जंगल में गया। सियार के साथ बाघ को फिर से दूर आता हुए देखकर बुद्धिमती ने सोचा-सियार के द्वारा उत्साहित किए गए बाघ से कैसे छूटा जाए? परन्तु जल्दी से सोचने वाली उसने सियार की तरफ उँगली से धमकाते हुए उससे कहा —अरे धूर्त! तूने मुझे पहले तीन बाघ दिए थे, आज विश्वास दिलाकर भी तू एक को ही लेकर क्यों आया, अब बता। ऐसा कहकर वह भय उत्पन्न करने वाली बाघ मारने वाली जल्दी से गई, गले में बँधे हुए शृगाल वाला बाघ भी अचानक नष्ट हो (भाग) गया। इस प्रकार से बुद्धिमती बाघ के भय से फिर से मुक्त हो गई। इसीलिए कहा जाता है-“हमेशा सभी कामों में बुद्धि ही बलवान होती है।"
शब्दार्थाः
धूर्ता = धूर्त स्त्री
गम्यताम् = जाना चाहिए
आस्ते =है
सम्मुखम् =सामने
ईक्षते = दिखाई देता है
हन्तव्यः = मारना चाहिए
गतस्य = गए हुए के
मुक्त्वा = छोड़कर
वेला = शर्त
स्यात् = होनी चाहिए
बद्ध्वा = बाँधकर
ययौ = दोनों चले गए
आयान्तम् = आए हुए को
मुच्यताम् = छुड़ाया जाय
आक्षिपन्ती = झिड़कती हुई, भर्त्सना करती हुई, आक्षेप करती हुई
अधुना = अब
भयङ्ककरा = भय पैदा करने वाली
गलबद्धशृगालकः = गले में बंधे हुए शृगाल वाला
बलवती = बलवान
सर्वकार्येषु = सब कामों में
विश्वस्य = विश्वास दिलाकर
तर्जयन्ती = धमकाती हुई, डाँटती हुई
सन्धिः विच्छेदो वा —
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प्रकृतिप्रत्ययोः विभाजनम् —
पदानि प्रकृतिः + प्रत्ययः
हन्तव्यः = हन्+तव्यत्
मुक्त्वा = मुच् +क्त्वा
बद्ध्वा = बध् +क्त्वा
बुद्धिमती = बुद्धिमत् + ङीप्
चिन्तितवती = चिन्त् + क्तवतु
आनीय = आ+ नी + ल्यप्
उक्त्वा = वच् +क्त्वा
धाविता = धाव+क्त
तन्वी = तनु + डीप
मुक्ता = मुच् +क्त +टाप्
नष्टः = नश्+क्त
पर्यायलेखनम्
पदानि पर्यायपदानि
ईक्षते = दृश्यते
यासि = गच्छसि
सत्वरम् = शीघ्रम्
उवाच = अकथयत्
विश्वास्य = समाश्वास्य
तूर्णम् = शीघ्रम्
जगाद = अकथयत्
समासो विग्रहो वा —
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