top of page

Class 10 Sanskrit Pranebhyo Priya Suhridya

एकादशः पाठः

प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुहृद्


प्रस्तुत नाट्यांश महाकवि विशाखदत्त की रचना "मुद्राराक्षस" इस नाटक के प्रथम अंक से लिया गया है। नाटक के इस भाग में चन्दनदास अपने प्रिय के लिए प्राणों का भी त्याग करने के लिए तैयार हैं। यहां नन्दवंश के विनाश के बाद उनके हितैषियों को बंधक बनाने के क्रम में चाणक्य और चन्दनदास के संवाद को प्रस्तुत किया गया है। चन्दनदास बंधन में हैं फिर भी अमात्य के विषय में कुछ भी नहीं बताते। वार्तालाप में चाणक्य के द्वारा चन्दनदास को राजदंड का भी डर दिखाया जा रहा है। यहाँ चन्दनदास की अपने सुह्रद के प्रति निष्ठा प्रदर्शित होती है।





पाठ का अनुवाद



चाणक्यः – वत्स! मणिकारश्रेष्ठिनं चन्दनदासमिदानीं द्रष्टुमिच्छामि।

चाणक्य – बेटा (प्रिय)। जौहरी सेठ चन्दनदास को इस समय देखना (मिलना) चाहता हूँ।


(वत्स – बेटा/प्रिय। मणिकारश्रेष्ठिनम् – मणियों का व्यापारी।)

(चन्दनदासमिदानीं =चन्दनदासम् + इदानीम्

द्रष्टुमिच्छामि = द्रष्टुम् + इच्छामि)




शिष्यः – तथेति (निष्क्रम्य चन्दनदासेन सह प्रविश्य) इतः इतः श्रेष्ठिन्! (उभौ परिक्रामतः)

शिष्य – ठीक है (वैसा ही हो) (निकलकर चन्दनदास के साथ प्रवेश करके) इधर-से-इधर से श्रेष्ठी (सेठ जी)! (दोनों घूमते हैं )


(तथेति = तथा + इति)


शिष्यः – (उपसृत्य) उपाध्याय! अयं श्रेष्ठी चन्दनदासः।

चन्दनदासः – जयत्वार्यः

शिष्य – (पास जाकर) आचार्य जी! यह सेठ चन्दनदास है। चन्दनदास – आर्य की विजय हो

(जयत्वार्यः = जयतु + आर्य:)



चाणक्यः – श्रेष्ठिन्! स्वागतं ते। अपि प्रचीयन्ते संव्यवहाराणां वृद्धिलाभा:?

चाणक्य – सेठ! तुम्हारा स्वागत है। क्या व्यवहारों का (कारोबार में) लाभ बढ़ रहे हैं?


(सु + आगतम् = स्वागतम्)


चन्दनदासः – (आत्मगतम्) अत्यादरः शङ्कनीयः। (प्रकाशम्) अथ किम्। आर्यस्य प्रसादेन अखण्डिता में वाणिज्या।

चन्दनदास – (मन-ही-मन में) अधिक सम्मान शंका के योग्य है। (प्रकट रूप से) और क्या। आर्य की कृपा से मेरा व्यापार अखण्डित है।


(अखण्डिता = न खण्डिता – नञ् तत्पुरुष)



चाणक्यः – भो श्रेष्ठिन्! प्रीताभ्यः प्रकृतिभ्यः प्रतिप्रियमिच्छन्ति राजानः।

चाणक्य – अरे सेठ! प्रसन्न स्वभाव वालों (लोगों) से राजा लोग उपकार के बदले किए गए उपकार को चाहते हैं।

(प्रियमिच्छन्ति = प्रियम् + इच्छन्ति)



चन्दनदासः – आज्ञापयतु आर्यः, किं कियत् च अस्मज्जनादिष्यते इति।

चन्दनदास – आर्य आज्ञा दें, क्या और कितना इस व्यक्ति से आशा करते हैं।

(अस्मज्जनादिष्यते = अस्मत् + जन + आदिष्यते)



चाणक्यः – भो श्रेष्ठिन्! चन्द्रगुप्तराज्यमिदं न नन्दराज्यम्। नन्दस्यैव अर्थसम्बन्धः प्रीतिमुत्पादयति। चन्द्रगुप्तस्य

तु भवतामपरिक्लेश एव।

चाणक्य – अरे सेठ! यह चन्द्रगुप्त का राज्य है नन्द का राज्य नहीं। नन्द का राज्य ही धन से प्रेम रखता है।

चन्द्रगुप्त तो आपके सुख से ही (प्रेम रखता है)।


(चन्द्रगुप्तराज्यमिदं = चन्द्रगुप्त + राज्यम् + इदम्

नन्दस्य + एव = नन्दस्यैव

प्रीतिमुत्पादयति = प्रीतिम् + उत्पादयति)



चन्दनदासः – (सहर्षम्) आर्य! अनुगृहीतोऽस्मि।

चन्दनदास – (खुशी के साथ) आर्य! आभारी हूँ।

(अनुगृहीतोऽस्मि = अनुगृहीतः + अस्मि)



चाणक्यः – भो श्रेष्ठिन्! स चापरिक्लेशः कथमाविर्भवति इति ननु भवता प्रष्टव्यः स्मः।

चाणक्य – हे सेठ! और वह दुःख का अभाव कैसे उत्पन्न होता है यही आपसे पूछने योग्य है।


(चापरिक्लेशः = च + अपरिक्लेश:

कथमाविर्भवति = कथम् + अविर्भवति)




चन्दनदासः – आज्ञापयतु आर्यः।

चन्दनदास – आर्य आज्ञा दीजिए।


चाणक्यः – राजनि अविरुद्धवृत्तिर्भव।

चाणक्य — राजा में (के लिए) विरुद्ध व्यवहार वाला न होओ (बनो)।

(अविरुद्धवृत्तिर्भव = अविरुद्धः + वृतिः + भव)


चन्दनदासः – आर्य! कः पुनरधन्यो राज्ञो विरुद्ध इति आर्येणावगम्यते?

चन्दनदास – आर्य! फिर कौन अभागा राजा के विरुद्ध है ऐसा आर्य समझते हैं।

(पुनः + अधन्यः = पुनरधन्यो)


चाणक्यः – भवानेव तावत् प्रथमम्।

चाणक्य – सबसे पहले तो आप ही।


चन्दनदासः – (कर्णी पिधाय) शान्तं पापम्, शान्तं पापम्। कीदृशस्तुणानामग्निना सह विरोधः?

चन्दनदास – (कानों को छूकर/बन्द करके) क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए। सूखी घासों का आग के साथ कैसा विरोध?

(कीदृशस्तृणानामग्निना = कीदृशः + तृणानाम् + अग्निना)





चाणक्यः – अयमीदृशो विरोधः यत् त्वमद्यापि राजापथ्यकारिणोऽमात्यराक्षसस्य गृहजनं स्वगृहे रक्षसि।

चाणक्य – यह ऐसा विरोध है कि तुम आज भी राजा का बुरा करने वाले अमात्य राक्षस के परिवार को अपने घर में रखते हो।


(अयमीदृशो = अयम् + ईदृशः

त्वमद्यापि = त्वम् + अद्य + अपि

राजापथ्यकारिणोऽमात्यराक्षसस्य = राजा + अपथ्यकारिणो + अमात्यराक्षसस्य)




चन्दनदासः – आर्य! अलीकमेतत्। केनाप्यनार्येण आर्याय निवेदितम्।

चन्दनदास – हे आर्य! यह झूठ है। किसी दुष्ट ने आर्य को (गलत) कहा है।

(अलीकमेतत् = अलीकम् + एतत्

केनाप्यनार्येण = केन + अपि + अनार्येण)


चाणक्यः – भो श्रेष्ठिन्! अलमाशङ्कया। भीताः पूर्वराजपुरुषाः पौराणामिच्छतामपि गृहेषु गृहजनं निक्षिप्य देशान्तरं व्रजन्ति। ततस्तत्प्रच्छादनं दोषमुत्पावयति।

चाणक्य – हे सेठ! आशंका (संदेह) मत करो। डरे हुए भूतपूर्व (पिछले/अपदस्थ) राजपुरुष पुर (नगर) वासियों की इच्छा से भी (उनके) घरों में परिवार जन को रखकर (छोड़कर) दूसरे स्थानों को चले जाते हैं। उससे उन्हें छिपाने का दोष पैदा होता है।

(अलमाशङ्कया = अलम् + अशङ्कया

पौराणामिच्छतामपि = पौराणम् + इच्छताम् + अपि

देशान्तरं = देश + अन्तरम्)





चन्दनदासः – एवं नु इवम्। तस्मिन् समये आसीदस्मद्गृहे अमात्यराक्षसस्य गृहजन इति।

चन्दनदास – निश्चय से ऐसा ही है। उस समय हमारे घर में अमात्य राक्षस का परिवार था।

(आसीदस्मदगृहे = आसीत् + अस्मत् + गृहे)



चाणक्यः – पूर्वम् ‘अनृतम्’, इदानीम् “आसीत्” इति परस्परविरुद्धे वचने।

चाणक्य – पहले ‘झूठ’ अब “था” ये दोनों आपस में विरोधी वचन हैं।





चन्दनदासः – आर्य! तस्मिन् समये आसीदस्मद्गृहे अमात्यराक्षसस्य गृहजन इति।

चन्दनदास – आर्य! उस समय हमारे घर में अमात्य राक्षस का परिवार था।



चाणक्यः – अथेदानी क्व गतः?

चाणक्य – अब इस समय कहाँ गया है?

(अथ + इदानीम् = अथेदानीम्)


चन्दनदासः – न जानामि।

चन्दनदास – नहीं जानता हूँ।


चाणक्यः – कथं न ज्ञायते नाम? भो श्रेष्ठिन्! शिरसि भयम्, अतिदूर तत्प्रतिकारः।

चाणक्य – क्यों नहीं जानते हो? हे सेठ! सिर पर डर है, उसका समाधान बहुत दूर है।

(तत् + प्रतिकारः = तत्प्रतिकारः)



चन्दनदासः – आर्य! किं मे भयं दर्शयसि? सन्तमपि गेहे अमात्यराक्षसस्य गृहजनं न समर्पयामि, किं पुनरसन्तम्?

चन्दनदास – आर्य! क्यों मुझे डर दिखाते हो? अमात्य राक्षस के परिवार के घर में होने पर भी नहीं समर्पित करता, फिर न होने पर तो बात ही क्या है?

(पुनरसन्तम् – पुनः + असन्तम्)




चाणक्यः – चन्दनदास! एष एव ते निश्चयः?

चाणक्य – हे चन्दनदास! यही तुम्हारा निश्चय है?

(निः + चयः – निश्चयः)


चन्दनदासः – बाढम्, एष एव मे निश्चयः।

चन्दनदास – हाँ, यही मेरा निश्चय है।


चाणक्यः – (स्वागतम्) साधु! चन्दनदास साधु।

चाणक्य – (अपने मन में) शाबाश! चन्दनदास शाबाश।


सुलभेष्वर्थलाभेषु परसंवेदने जने।

क इदं दुष्करं कुर्यादिदानीं शिविना विना॥


अन्वयः - परस्य संवेदन अर्थलाभेषु सुलभेषु इदं दुष्करं कर्म जने (लोके) शिविना विना कः कुर्यात।


हिंदी अनुवाद

दूसरे की वस्तु को समर्पित करने पर बहुत धन का लाभ सरल होने की स्थिति में दूसरों की वस्तु की सुरक्षा रूपी कठिन कार्य को एक शिवि को छोड़कर तुम्हारे अलावा कौन कर सकता है?


आशय – इस श्लोक के द्वारा महाकवि विशाखत्त ने बड़े ही संक्षिप्त शब्दों में चन्दनदास के गुणों का वर्णन किया है। इसमें कवि ने कहा है कि दूसरों की वस्तु की रक्षा करना कठिन कार्य है। यहाँ चन्दनदास के द्वारा अमात्य राक्षस के परिवार की रक्षा का कठिन काम किया गया है।

चन्दनदास अगर अमात्य राक्षस के परिवार को राजा को समर्पित कर देता, तो राजा उससे प्रसन्न भी होता और बहुत सा धन पुरस्कार के रूप में देता। पर उसने अपने होने वाले लाभ के बारे में ना सोचते हुए अपने प्रिय मित्र के परिवार की रक्षा को अपना प्रथम कर्त्तव्य माना।

कवि ने चन्दनदास के इस कार्य की तुलना राजा शिवि के कार्यों से की है, जिन्होंने अपने शरण में आए कपोत या कबूतर की रक्षा के लिए अपने शरीर के अंगों को काटकर दे दिया था। राजा शिवि ने ऐसा सतयुग में ऐसा किया था, पर चन्दनदास ने ऐसा कार्य इस कलियुग में किया है, इसलिए वे और अधिक प्रशंसा के योग्य हैं।


Comments

Rated 0 out of 5 stars.
No ratings yet

Add a rating

Top Stories

bottom of page