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Kabir ki Sakhi Class 10 Hindi explanation


Summary

साखी' कबीरदास जी द्वारा रचित है। साखी में ज्ञानपूर्ण बातें छुपी हुई रहती हैं। साखी के माध्यम से कबीरदास जी ने साधारण जनसमूह को ज्ञान देने का प्रयास किया है। कबीर जानते थे कि ज्ञान से परिपूर्ण बातों को साधारण जनसमूह को समझाया जाए, तो उनके लिए उसे समझना कठिन होगा। उन्होंने साखियों का निर्माण किया ताकि ज्ञान की बातें साधारण जनसमूह को उनकी ही भाषा में आसान तरीके से समझाया जा सके। अपनी साखी में कबीरदास जी मनुष्य को अपनी वाणी को शीतल करने, ईश्वर को अपने अंदर ढूँढने, सच्चे मन से ईश्वर भक्ति करने, निंदा करने वाले को अपने समीप रखने, प्रेम करने, और मोह माया के बंधनों को तोड़ने के लिए प्रेरित करते हैं। इन साखियों में कबीरदास जी अपने दुख को भी दर्शाते हैं। उनके अनुसार ईश्वर मंदिर-मस्जिद में न होकर हमारे ह्दयों में वास करते हैं।


कबीर की साखी 1:

ऐसी बाँणी बोलिए मन का आपा खोई।

अपना तन सीतल करै औरन कैं सुख होई।।

भावार्थ

कबीरदास जी के अनुसार मनुष्य को इस प्रकार की वाणी बोलनी चाहिए, जिसमें अहंकार न हो। ऐसी वाणी, बोलने वाले को शीतलता प्रदान करती है और सुनने वाले को सुख प्रदान करती है। अर्थात्‌ यदि कोई मनुष्य बिना अंहकार वाली बातें करता है तो उसे बोलते समय स्वयं को बहुत अच्छा लगता है और सुनने वाला व्यक्ति भी उसकी बातों से खुशी ही पाता है।

कबीर की साखी 2:

कस्तूरी कुण्डली बसै मृग ढ़ूँढ़ै बन माहि।

ऐसे घटी घटी राम हैं दुनिया देखै नाँहि॥

हिरण कस्तूरी की खुश्बू से मुग्ध होकर उसे वन में चारों तरफ़ ढूंढ़ता रहता है। परन्तु वह इस बात से अन्जान होता है कि कस्तूरी और कहीं नहीं उसकी पेट में स्थित कुंडलि में है। ऐसे ही मनुष्य ईश्वर को मंदिर तथा मस्जिद में ढूँढता है परंतु उसे पता नहीं होता कि राम तो उसके रोम-रोम में निवास करते हैं।

कबीर की साखी 3:

जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि हैं मैं नाँहि।

सब अँधियारा मिटी गया दीपक देख्या माँहि॥

कबीरदास जी कहते हैं जब मेरे अंदर अहंकार भरा हुआ था, तब मुझे ईश्वर के दर्शन नहीं हुए थे। जिस दिन मैंने अपने अन्दर के इस अहंकार को मार दिया उस दिन मेरा, मैं (अहंकार) समाप्त हो गया और मुझे ईश्वर के दर्शन हुए और जब मैंने ईश्वर को पा लिया तो मुझमें व्याप्त अहंकार का भाव ही समाप्त हो गया। कबीरदास जी कहते हैं, यह सब ज्ञान रूपी दीपक के कारण ही सम्भव हुआ है। मेरे जीवन में जब ज्ञान का आगमन हुआ तब अज्ञान रूपी अन्धकार मिट गया। अर्थात्‌ ज्ञान के आते ही मेरे हृदय का सारा अज्ञान समाप्त हो गया।

कबीर की साखी 4:

सुखिया सब संसार है खाए अरु सोवै।

दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोवै।।

कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार के समस्त प्राणी अज्ञान रूपी भोजन खाकर सुख की नींद में सो रहे हैं। परन्तु मेरी स्थिति इससे विपरीत है। मेरा सारा अज्ञान समाप्त हो गया है। और मेरा हृदय ईश्वर से मिलने के लिए रो रहा है जिसके कारण मुझे नींद भी नहीं आती है।

कबीर की साखी 5:

बिरह भुवंगम तन बसै मन्त्र न लागै कोई।

राम बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होई।।

कबीरदास जी के अनुसार शरीर में विरह रूपी साँप बस गया है। इसके निर्वारण हेतु अनेक मंत्रों का उपचार किया गया है परन्तु कोई भी उपाय काम नहीं आ रहा है। कबीरदास जी कहते हैं कि राम बियोगी की तो ऐसी ही हालत होती है कि वह उनके बिछोह में मर जाता है और यदि किसी तरह बच जाता है तो सारी उम्र राम नाम की रट लगाए पागल इधर-उधर भटकता रहता है।

कबीर की साखी 6:

निंदक नेड़ा राखिये, आँगणि कुटी बँधाइ।

बिन साबण पाँणीं बिना, निरमल करै सुभाइ॥

कबीरदास जी मनुष्य को अपनी निंदा करने वाले व्यक्ति को अपने सम्मुख रखने की सलाह देते हैं। उनके अनुसार निंदक को अपने आँगन में कुटिया बनाकर रखना चाहिए। यह निंदक आपके स्वभाव को बिना पानी व साबुन के निर्मल बना देगा। भाव यह है कि जिस तरह हम मैल निकालने के लिए साबुन व पानी का प्रयोग कर स्वयं को साफ व स्वच्छ बनाते हैं, उसी प्रकार यदि हम अपने सामने उसी व्यक्ति को रखें जो हमें हमारी बुराईयाँ बताता रहे। उसके द्वारा की गई बुराईयों से हमें पता चलेगा कि हमारे अन्दर क्या गलत है और हम उन बुराईयों को दूर करते रहेंगे। इस प्रकार हमारा मन बिना साबुन और पानी के स्वच्छ तथा निर्मल हो जाएगा।

कबीर की साखी 7:

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।

एकै अषिर पीव का, पढ़ै सु पंडित होइ॥

कबीरदास जी कहते हैं कि समस्त संसार के लोग पोथी पढ़-पढ़ कर मर गए परन्तु विद्वान नहीं बन पाए। ज्ञान ग्रन्थों की बड़ी-बड़ी पुस्तकों से प्राप्त नहीं होता है बल्कि प्रेम से प्राप्त होता है। जिस मनुष्य ने प्रेम का एक अक्षर भी पढ़ लिया हो वही सच्चा ज्ञानी है। अर्थात्‌ जिसने ईश्वर की सच्ची भक्ति न करके उसे ग्रन्थों-किताबों में ढँूढा होद्व सच्चे मन से ईश्वर भक्ति की हो तो उसे ईश्वर व ज्ञान दोनों स्वतः ही प्राप्त हो जाते हैं। यह सच्चे विद्वान की पहचान है।

कबीर की साखी 8:

हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि।

अब घर जालौं तास का, जे चलै हमारे साथि॥

प्रस्तुत पंक्तियों में कबीरदास जी ने अपना विषय-वासनाओं रूपी घर भक्ति रूपी जलती हुई लकड़ी से जल दिया है। वह उस व्यक्ति का भी घर जला सकते हैं जो उनके साथ चलेगा। भाव यह हैं कि जबसे कबीरदास जी ने राम की भक्ति आरम्भ की तब से उनके मन में विषय-वासनाओं के प्रति रूचि समाप्त हो गई है। जो व्यक्ति इन विषय-वासनाओं से छुटकारा पाना चाहता है तो वह उसे भक्ति रूपी मंत्र देकर इनसे छुटकारा दिला सकते हैं।


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