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व्यायामः सर्वदा पथ्यः NCERT SHEMUSHI CLASS 10 Chapter 3




प्रस्तुत पाठ आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सुश्रुतसंहिता’ के चिकित्सा स्थान में वर्णित 24वें अध्याय से संकलित है। इसमें आचार्य सुश्रुत ने व्यायाम की परिभाषा बताते हुए उससे होने वाले लाभों की चर्चा की है।


1. वृत्तं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमेति च याति च । अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः॥

शरीरायासजननं कर्म व्यायामसंज्ञितम्।

तत्कृत्वा तु सुखं देहं विमृद्नीयात् समन्ततः॥१॥


शब्दार्थः -

  • शरीर - काया, देह

  • आयास - श्रम, मेहनत

  • जननम् - निर्मिति (यहाँ निर्मिति करने वाला)

  • कर्म - काम

  • व्यायामसंज्ञितम् - व्यायाम इस नाम से जाना जाता है

  • तत् - वह

  • कृत्वा - कर के

  • तु - तो

  • सुखम् - सुख

  • देहम् - शरीर को,

  • विमृद्नीयात् - मालिश करनी चाहिए, रगड़ना चाहिए।

  • समन्ततः - चारों ओर से

अन्वय


शरीरायासजननं कर्म व्यायामसंज्ञितम्। तत् कृत्वा तु सुखं देहं समन्ततः विमृद्नीयात्।

शरीर का श्रम उत्पन्न करने वाला काम व्यायाम इस नाम से जाना जाता है। वह (व्यायाम) कर के तो आराम से शरीर की हर तरफ से मालिश करनी चाहिए।

इस श्लोक में व्यायम के बाद शरीर की मालिश करने को कहा गया है। अब प्रश्न उठता है कि व्यायाम के बाद ही क्यों? पहले क्यों नहीं?

देखिए मालिश होती है तेल जैसे पदार्थों से। और ऐसे तेल वगैरह लगा कर मालिश करने के पश्चात् यदि हम व्यायाम करने लगे तो सोचिए क्या होगा? व्यायाम की वजह से शरीर से स्वेद (पसीना) निकलने लगता है। और वह स्वेद तेल के साथ मिल कर चर्मरोग का कारण बन सकते हैं। इसीलिए व्यायम के बाद शरीर शान्त हो जाए, तब शान्ति से मालिश हो सकती है।


भावार्थ -

येन कर्मेण शरीरस्य परिश्रमः भवति, तत् कार्यं व्यायामः इति नाम्ना संज्ञितम् अस्ति। व्यायामात् अनन्तरं मनुष्येण सुखेन शरीरस्य मर्दनं करणीयम्।


भाव का हिन्द्यर्थ -

जिस काम से शरीर का परिश्रम होता है, वह कार्य व्यायाम इस नाम से जाना जाता है। व्यायाम के बाद मनुष्यों को इत्मिनान से शरीर की मालिश करनी चाहिए।

व्याकरण -

  • शरीरासायासजननम् - षष्ठी तत्पुरुष समासः( दीर्घसन्धिः)

    • शरीरस्य आयसस्य जननम्।

    • शरीर + आयस

    • शरीरायस - जननम्।

    • शरीसायसजननम्।

  • व्यायामसंज्ञितम् - तृतीया तत्पुरुषः।

    • संज्ञा - नाम।

    • संज्ञित करना - नामकरण करना।

    • व्यायामसंज्ञित - व्यायाम (इस नाम) से नामकृत।


शरीरोपचयः कान्तिर्गात्राणां सुविभक्तता।

दीप्ताग्नित्वमनालस्यं स्थिरत्वं लाघवं मृजा॥२॥


शब्दार्थ -

  • शरीर - देह, काया

  • उपचय - वृद्धि होना, समृद्ध होना, इकठ्ठा होना

  • कान्तिः - दीप्ति, चमक

  • गात्राणाम् - गात्रों की, (गात्र - शरीर के अंग, अवयव)

  • सुविभक्तता - सौष्ठव, उत्तमता, सुडौल होना, समान रूप से विकास

  • दीप्ताग्नित्वम् - अग्नि का प्रज्वलित होना, जठराग्नि का प्रज्वलित रहना, अच्छी भूख लगना

  • अनालस्यम् - आलस ना होना, फुर्तीला होना

  • स्थिरत्वम् - स्थिरता, विकृति का ना होना

  • लाघवम् - हल्कापन, लचीलापन

  • मृजा - स्वच्छता, नीरोगता, वात कफ पित्त इत्यादि का संतुलन

अन्वय -

(व्यायामात्) शरीरोपचयः कान्तिः गात्राणां सुविभक्तता दीप्ताग्नित्वम् अनालस्यं स्थिरत्वं लाघवं मृजा (च उपजायते)

व्यायाम से शरीर की वृद्धि, चमक, शारीरिक अंगों की सुडोलता, जठराग्नि की प्रबलता, आलस का अभाव (यानी फुर्तीलापन), स्थिरता (कोई विकृति ना होना), हल्कापन और नीरोगता (मनुष्य को) प्राप्त होते हैं।


व्याकरणम् -

  • शरीरोपचयः

    • सन्धिः - शरीर + उपचयः।( इति गुणसन्धिः।)

    • समासः - शरीरस्य उपचयः।( इत षष्ठीतत्पुरुषः।)

  • कान्तिर्गात्राणाम् - कान्तिः + गात्राणाम्।(ति रुत्वसन्धिः।)

  • सुविभक्तता -

    • सुविभक्त + तल्। इति प्रकृतिप्रत्ययौ।

  • दीप्ताग्नित्वम्

    • दीप्त + अग्नित्वम्।( इति गुणसन्धिः।)

    • दीप्ताग्नि + त्व। (ति प्रकृतिप्रत्ययौ।)

  • अनालस्यम् - न आलस्यम्। (इति नञ्-तत्पुरुषः।)

  • स्थिरत्वम् - स्थिर + त्व। (इति प्रकृतिप्रत्ययौ।)

श्रमक्लमपिपासोष्णशीतादीनां सहिष्णुता।

आरोग्यं चापि परमं व्यायामादुपजायते॥३॥


शब्दार्थ -

  • श्रम - परिश्रम, मेहनत

  • क्लम - थकान

  • पिपासा - तृष्णा, प्यासउष्ण - गर्मी

  • शीत - ठंड

  • आदीनाम् - इन सभी की

  • सहिष्णुता - सहनशक्ति, सहने की क्षमता

  • आरोग्यम् - नीरोगता, हेल्थ

  • च - और

  • अपि - भी

  • परमम्- उत्तम, श्रेष्ठ

  • व्यायामात् - व्यायाम से

  • उपजायते - उत्पन्न होते हैं

अन्वय -

व्यायामात् श्रम-क्लम-पिपासा-उष्ण-शीत-आदीनां सहिष्णुता अपि च परमं आरोग्यम् उपजायते।

व्यायाम से परिश्रम, थकान, प्यास, गर्मी, ठंडक आदि को सहन करने की क्षमता और भी उत्तम आरोग्य उत्पन्न होता है।


व्याकरणम् -

  • श्रमक्लमपिपासोष्णशीतादीनाम्

    • श्रमः च क्लमः च पिपासा च उष्णं च शीतं च - श्रमक्लमपिपासोष्णशीतानि। (इति इतरेतरद्वन्द्वः।)

    • श्रमक्लमपिपासोष्णशीतानि आदीनि येषां ते - श्रमक्लमपिपासोष्णशीतादयः। (इति बहुव्रीहिः समासः।)

    • श्रमक्लमपिपासोष्णशीतादयः। तेषां श्रमक्लमपिपासोष्णशीतादीनाम्।( इति षष्ठी विभक्तिः।)

    • पिपासोष्ण - पिपासा + उष्ण।( इति गुणसन्धिः।)

    • शीतादीनाम् - शीत + आदीनाम् ।( इति दीर्घसन्धिः।)

  • सहिष्णुता - सहिष्णु + तल्।( इति प्रत्ययः।)

  • चापि - च + अपि।( इति दीर्घसन्धिः।)

  • व्यायामादुपजायते - व्यायामात् + उपजायते।( इत जश्त्वसन्धिः। कचटतप - गजडदब।)

न चास्ति सदृशं तेन किञ्चित्स्थौल्यापकर्षणम्।

न च व्यायामिनं मर्त्यमर्दयन्तरयो बलात्॥४॥


शब्दार्थ -

  • न - नहीं

  • च - और

  • अस्ति - है

  • सदृशम् - समानम्, जैसा

  • तेन - उसके

  • किञ्चित् - कुछ भी

  • स्थौल्य - स्थूलता, मोटापा

  • अपकर्षणम् - न्यूनीकरणम्, कम करने वाला

  • न - नहीं

  • च - और

  • व्यायामिनम् - व्यायाम करने वाले को

  • मर्त्यम् - मनुष्यः, जनः, इस मृत्युलोक (पृथ्वी) में रहने वाला

  • अर्दयन्ति - नाशयन्ति, मारयन्ति, मारते हैं

  • अरयः - शत्रवः, रिपवः, वैरिणः, दुश्मन

  • बलात् - हठात् , बलप्रयोगात्, बलपूर्वकम्, जबर्दस्ती से

अन्वय -

तेन (व्यायामेन) सदृशं च स्थौल्यापकर्षणं किञ्चित् (अपि) नास्ति। अरयः च व्यायामिनं मर्त्यं बलात् न अर्दयन्ति।

और उस व्यायाम के समान मोटापे को कम करने वाला कुछ भी नहीं है। और शत्रु भी व्यायाम करने वाले मनुष्य को जबर्दस्ती से नहीं मारते हैं।

भावार्थ - व्यायाम इव शरीरस्य स्थूलतां न्यूनीकर्तुम् अन्यं किमपि नास्ति। अतः यः मनुष्यः व्यायामं करोति तस्य शत्रुजनाः अपि तं मनुष्यं बलपूर्वकं न पीडयन्ति। अर्थात् तस्मै व्यायामिमनुष्याय कष्टं यच्छन्ति।


व्याकरण -

  • चास्ति - च + अस्ति। इति सवर्णदीर्घसन्धिः।

  • स्थौल्यापकर्षणम् -

    • स्थौल्य + अपकर्षणम्। (इति सवर्णदीर्घसन्धिः।)

    • स्थौल्यस्य अपकर्षणम्। (इति षष्ठीतत्पुरुषः।)

  • व्यायामिनम्

    • व्यायाम + इन् - व्यायामिन्।( इति प्रत्ययः।)

    • व्यायामिन् + द्वितीया - व्यायामिनम्।( इति विभक्तिः।)

  • मर्त्यमर्दयन्ति - मर्त्यम् + अर्दयन्ति। इति संयोगः( अत्र सन्धिः नास्ति।)

  • अर्दयन्त्यरयः - अर्दयन्ति + अरयः। (इति यण्सन्धिः।)

  • अरयो बलात् - अरयः + बलात्।( इत उत्वसन्धिः।)

न चैनं सहसाक्रम्य जरा समधिरोहति।

स्थिरीभवति मांसं च व्यायामाभिरतस्य च॥५॥

शब्दार्थ -

  • न - नहीं

  • च - और

  • एनम् - उसे (यहाँ अर्थ है - उस पर)

  • सहसा - अकस्मात्, झटिति, अचानक से

  • आक्रम्य - हमला करके

  • जरा - वृद्धत्वम्, बुढापा

  • समधिरोहति - आरोहति, चढता है

  • स्थिरीभवति - स्थिर होता है।

  • मांसम् - आमिषम्, मांस

  • च - और

  • व्यायामाभिरतस्य - व्यायाम में लगे हुए/ मश्गुल/ रत / मग्न मनुष्य का

    • अभिरत - तल्लीन, रत, मग्न

अन्वय -

जरा च एनं (व्यायामिनं) सहसा आक्रम्य न समधिरोहति। व्यायामाभिरतस्य च मांसं स्थिरीभवति।

बुढापा उस व्यायाम करने वाले को अचानक से आक्रमण करके नहीं आता। और व्यायाम में रत मनुष्य का मांस स्थिर होता है।

व्याकरण -

  • चैनम् - च + एनम्। इति वृद्धिसन्धिः।

  • सहसाक्रम्य - सहसा + आक्रम्य। इति दीर्घसन्धिः।

    • आक्रम्य - आ + क्रम् + ल्यप्

  • व्यायामाभिरतस्य

    • व्यायाम + अभिरतस्य। इति दीर्घसन्धिः।

    • व्यायामे अभिरतस्य। इति सप्तमीतत्पुरुषसमासः।


व्यायामस्विन्नगात्रस्य पद्भ्यामुद्वर्तितस्य च,

व्याधयो नोपसर्पन्ति वैनतेयम् इव उरगाः।

वयोरूपगुणैर्हीनमपि कुर्यात्सुदर्शनम्॥६॥


शब्दार्थ -

  • व्यायामस्विनगात्रस्य - जिसके अंग व्यायाम से गीले हो चुके हैं उस के, व्यायाम से परीनोपसीन हो जाने वाले के

    • व्यायामः - कसरत

    • स्विन्न - पसीने से लदबद

    • गात्रम् - शारीरिक अंग

  • पद्भ्याम् - (दो) पैरों से

  • उद्वर्तितस्य - ऊपर उठकर किए जाने वाले (व्यायाम) करने वाले के

  • च - और

  • व्याधयः - रोगाः। बीमारियाँ

  • न - नहीं

  • उपसर्पन्ति - पास आती हैं

  • वैनतेयम् - गरुड के

  • इव - जैसे

  • उरगाः - सर्पाः। साँप

  • वयोरूपगुणैः - उम्र, रूप, गुण इत्यादि से

    • वयः - आयुः। उम्र

  • हीनम् - गरीब, जिसके पास ..... नहीं है

  • अपि - भी

  • सुदर्शनम् - सुन्दर

  • कुर्यात् - कर लें

अन्वय -

व्यायामस्विन्नगात्रस्य पद्भाम् उद्वर्तितस्य च (मनुष्यस्य समीपम्) वैनतेयम् इव उरगाः व्याधयः न उपसर्पन्ति। (व्यायामः) वयोरूपगुणैः हीनं (मनुष्यम्) अपि सुदर्शनं कुर्यात्।

व्यायाम से जो पसीनोपसीन हो जाता है और पैरों से ऊपर उठने वाले व्यायाम करने वाले मनुष्य के पास गरुड के जैसे साप (पास नहीं आते वैसे ही) बीमारियाँ पास नहीं आती। व्यायाम तो उम्र, सुन्दर रूप, अच्छे गुण इत्यादि से हीन मनुष्य को भी सुन्दर बना देगा।

पैरों से ऊपर उठने वाले व्यायाम यानी उठक बैठक, नीचे बैठकर उपर छलांग लगाना वगैरह जैसे व्यायाम। और ऐसे व्यायाम करने से जिसके गात्र (शरीर के अंग) स्विन्न (पसीने से लदबद) हो जाते हैं उसके पास बीमारियाँ नहीं आती, जैसे कि किसी गरुड के पास साँप नहीं आते। जो मनुष्य उम्र दराज है, यानी जिसकी उम्र ज्यादा है, जिसका रूप अच्छा नहीं है, अच्छे जिसके पास गुण भी नहीं हैं, वह मनुष्य व्यायाम करने से सुदर्शन ( सुन्दर) बन सकता है।

पौराणिक कथा के अनुसार ऋषि कश्यप के दो पत्नियाँ थी - विनता और कद्रू। गरुड विनता का पुत्र था इसीलिए उसका नाम वैनतेय पड गया। वैनतेय अर्थात् विनता का पुत्र।


व्याकरण -

  • व्यायामस्विन्नगात्रस्य -

    • व्यायामेन स्विन्नम् - व्यायामस्विन्नम्।( इति तृतीया तत्पुरुषः।)

    • व्यायामस्विन्नम् गात्रं यस्य सः - व्यायामस्विन्नगात्रः।( इति बहुव्रीहिः।) व्यायामस्विन्नगात्रः तस्य - व्यायामस्विन्नगात्रस्य।( इति षष्ठी विभक्तिः।)

  • व्याधयो न - व्याधयः + न।( इत उत्वसन्धिः।)

  • नोपसर्पन्ति - न + उपसर्पन्ति। (इत गुणसन्धिः।)

  • वयोरूपगुणैः

    • वयः च रूपं च गुणः च - वयोरूपगुणाः। इत इतरेतरद्वन्द्वः।

    • तैः - वयोरूपगुणैः । इति तृतीया विभक्तिः।

    • वयसा च रूपेण च गुणेन च - वयोरूपगुणैः। इति इतरेतरद्वन्द्वः।

  • वयोरूपगुणैर्हीनम् - वयोरूपगुणैः + हीनम्। इति रुत्वसन्धिः।

व्यायामं कुर्वतो नित्यं विरुद्धमपि भोजनम्।

विदग्धमविदग्धं वा निर्दोषं परिपच्यते॥७॥


शब्दार्थ -

  • व्यायामम् - कसरत

  • कुर्वतः - करने वाले का

  • नित्यम् - सदा। सदैव। हमेशा

  • विरुद्धम् - विपरीतम्। उलटा

  • अपि - भी

  • भोजनम् - खाना

  • विदग्धम् - पक्वम्। पका हुया

  • अविदग्धम् - अपक्वम्। जो पका हुआ नहीं है

  • वा - अथवा। या

  • निर्दोषम् - बिना किसी परेशानी/गडबडी के,

  • परिपच्यते - हजम हो जाता है

अन्वय -

नित्यं व्यायामं कुर्वतः विरुद्धम् अपि भोजनम् , विदग्धम् अविदग्धं वा, निर्दोषं परिपच्यते।

हमेशा व्यायाम करनेवाले का विरुद्ध भी भोजन, पका हो या ना हो, बिना किसी गडबडी के पच जाता है।

इस श्लोक में विरुद्ध भोजन यह एक बात कही है। यहाँ विरुद्ध का अर्थ है ऋतु या काल के विरुद्ध। यदि व्यायाम करने वाला ऋतु या समय के हिसाब उलटा भी अगर कुछ खा ले, वह कच्चा हो या पका हुआ, उसकी अन्नपचन की शक्ति इतनी मजबूत रहती है कि वह खाया हुआ सबकुछ पच जाता है।

जैसे कि हम जानते हैं - गर्मी के समय में हमें ठंडी चीजें खानी चाहिए। जैसे कि शीतपेय, पानीदार फल। और गर्मी के मौसम में यदि हम उष्णता से भरपूर चीजें खा लेते हैं, तो परेशानी होती है। परन्तु व्यायाम करने वाला गर्मी में भी उष्ण चीजे खा सकता है और सर्दी में भी ठंडी चीजे खा सकता है।

व्याकरण -

  • कुर्वतः

    • कृ + शतृ - कुर्वत्। इति शतृप्रत्ययः। करोति - करता है। कुर्वत् - करने वाला।

    • कुर्वत् + अः - कुर्वतः। इति षष्ठीविभक्तिः। करने वाले का।

  • अविदग्धम् - न विदग्धम्। इति नञ् - तत्पुरुषः।

  • निर्दोषम् - दोषस्य / दोषाणाम् अभावः। इति अव्ययीभावसमासः।

  • पच्यते - पच् + कर्मवाच्य।


व्यायामो हि सदा पथ्यः बलिनां स्निग्धभोजिनाम्।

स च शीते वसन्ते च तेषां पथ्यतमः स्मृतः॥८॥


शब्दार्थ -

  • व्यायामः - परिश्रम, मेहनत

  • हि - एक अव्यय पद

  • सदा - सर्वदा। सदैव। हमेशा

  • पथ्यः - हितकरः। फायदेमंद

  • बलिनाम् - बलवान लोगों का ( यहां - बलवान लोगों के लिए)

  • स्निग्धभोजिनाम् - स्निग्ध पदार्थ खाने वाले लोगों का (यहां - के लिए)

  • सः - वह

  • च - और

  • शीते - ठंडी में

  • वसन्ते - वसंत ऋतु में

  • च - और

  • तेषाम् - उनका (यहां - उनके लिए)

  • पथ्यतमः - सबसे ज्यादा फायदेमंद

  • स्मृतः - माना गया है

अन्वय -

स्निग्धभोजिनां बलिनां हि व्यायामः सदा पथ्यः (अस्ति)। शीते च वसन्ते च सः तेषां पथ्यतमः स्मृतः।

जो लोग स्निग्ध पदार्थों का भोजन करते हैं, बलवान होते हैं उनके लिए तो व्यायाम हमेशा फायदेमंद है। ठंडी में और वसंत ऋतु में वह (यानी व्यायाम) उनके लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद माना गया है।

व्याकरणम् -

  • व्यायामो हि - व्यायामः + हि। इति उत्वसन्धिः।

  • पथ्यो बलिनाम् - पथ्यः + बलिनाम्। इति उत्वसन्धिः।

  • बलिनाम्

    • बल + इन् - बलिन्। इति इन्-प्रत्ययः।

    • बलिन् + आम् - बलिनाम्। इति षष्ठी बहुवचनम्।

  • स च - सः च। इति विसर्गलोपसन्धिः।

  • स्मृतः - स्मृ + क्त। इति क्तप्रत्ययः।


सर्वेष्वृतुष्वहरहः पुम्भिरात्महितैषिभिः।

बलस्यार्थेन कर्तव्यो व्यायामो हन्त्यतोऽन्यथा॥९॥


शब्दार्थ -

  • सर्वेषु - सभी

  • ऋतुषु - ऋतुओं में

  • अहरहः - प्रतिदिनम्। हररोज (अहः च अहः च)

  • पुम्भिः - पुरुषैः। पुरुषों के द्वारा (तृतीयाबहुवचनम्)

  • आत्महितैषिभिः - जो खुद का भला चाहते हैं उनके द्वारा

  • बलस्य - शक्तेः। ताकत के

  • अर्धेन - अर्धभागेन। आधे हिस्से से

  • कर्तव्यः - करणीयः। किया जाना चाहिए

  • व्यायामः - शरीरायासजननं कर्म।

  • हन्ति - मारयति। मार देता है। (हानि करता है)

  • अतः - इस से

  • अन्यथा - इसके अलावा

अन्वय -

आत्महितैषिभिः पुम्भिः सर्वेषु ऋतुषु अहरहः बलस्य अर्धेन व्यायामः कर्तव्यः। अतः अन्यथा हन्ति।

जो लोग खुद का भला चाहते हैं ऐसे पुरुषों ने सभी ऋतु हमें हर दिन अपनी शक्ति के आधी शक्ति से व्यायाम करना चाहिए। इसके अलावा ( यानी ज्यादा व्यायाम किया जाए तो) हानि करता है।

व्याकरणम् -

  • सर्वेष्वृतुष्वहरहः - सर्वेषु + ऋतुषु + अहरहः। इति यण् सन्धिः।

  • अहरहः - अहः च अहः च।

  • पुम्भिरात्महितैषिभिः - पुम्भिः + आत्महितैषिभिः। इति रुत्वसन्धिः।

  • पुम्भिः - पुंस् + तृतीयाबहुवचनम्

  • बलस्यार्धेन - बलस्य + अर्धेन। इति सवर्णदीर्घसन्धिः।

  • कर्तव्यो व्यायामो - कर्तव्यः + व्यायामो। इति उत्वसन्धिः।

  • व्यायामो हन्त्यतो - व्यायामः + हन्त्यतो। इति उत्वसन्धिः।

  • हन्त्यतो - हन्ति + अतो। इति यण्सन्धिः।

  • अतोऽन्यथा

  • अतः + अन्यथा। इति उत्वसन्धिः पूर्वरूपसन्धिः च।


हृदिस्थानस्थितो वायुर्यदा वक्त्रं प्रपद्यते।

व्यायामं कुर्वतो जन्तोस्तद्बलार्धस्य लक्षणम्॥१०॥


शब्दार्थ

  • हृदिस्थानस्थितः - छाती में स्थित (रहनेवाला)

  • वायुः - हवा

  • यदा - जब

  • वक्त्रम् - मुखम्।

  • प्रपद्यते - प्राप्नोति। पहुंचता है

  • व्यायामम् - व्यायाम

  • कुर्वतः - करनेवाले

  • जन्तोः - जीवस्य। प्राणिनः। (मनुष्यस्य)।

  • तत् - वह

  • बलार्धस्य - आधी शक्ति का

  • लक्षणम् - निशान

अन्वय

यदा व्यायामं कुर्वतः जन्तोः हृदिस्थानस्थितः वायुः वक्त्रं प्रपद्यते, तत् बलार्धस्य लक्षणम् (भवति)

जब व्यायाम करने वाले मनुष्य के फेफडों में रहने वाला वायु (सांस) मुंह तक पहुंच जाता है, (तो) वह आधे बल का निशान होता है।

हमने पिछले श्लोक में पढा है कि व्यायाम कब तक किया जाना चाहिए। हमारा पूर्वोक्त श्लोक कहता है कि मनुष्य ने अपनी आधी शक्ति खत्म होने तक ही हररोज व्यायाम करना चाहिए। अन्यथा हमारी हानि हो सकती है। परन्तु व्यायाम करते समय हम कैसे समझ सकते हैं कि हमारी आधी शक्ति समाप्त हो चुकी है?

इसका उत्तर यह श्लोक देता है। यह श्लोक कहता है कि हृदिस्थान में स्थित वायु यानी हमारे फेफडों में जो हवा होती है वह जब मुंह में आने लगती है, यानी सांस फूलने लगती है, तो हम समझ जाना चाहिए कि अब हमारी आधी शक्ति समाप्त हो चुकी है। अब हमें अपना व्यायाम रोक देना चाहिए।


व्याकरण

  • हृदिस्थानस्थितः

    • हृदि स्थानम् - हृदिस्थानम्। इति सप्तमीतत्पुरुषः।

    • हृदिस्थाने स्थितः - हृदिस्थानस्थितः। इति सप्तमीतत्पुरुषः।

  • हृदिस्थानस्थितो वायुः - हृदिस्थानस्थितः + वायुः। इति उत्वसन्धिः।

  • वायुर्यदा - वायुः + यदा। इति रुत्वसन्धिः।

  • कुर्वतो जन्तोः - कुर्वतः + जन्तोः। इति उत्वम्।

  • कुर्वतः - कृ + शतृप्रत्ययः। षष्ठी विभक्तिः।

  • जन्तोस्तत् - जन्तोः + तत्। इति सत्वसन्धिः। विसर्गस्य स्।

  • बलार्धस्य -

    • बल + अर्धस्य। इति सवर्णदीर्घसन्धिः।

    • बलस्य अर्धस्य। इत षष्ठीतत्पुरुषः समासः।

वयोबलशरीराणि देशकालाशनानि च।

समीक्ष्य कुर्याद् व्यायाममन्यथा रोगमाप्नुयात्॥११॥


शब्दार्थ

  • वयोबलशरीराणि - उम्र, ताकत और शरीर

  • देशकालाशनानि - इलाका, समय और भोजन

  • च - और

  • समीक्ष्य - देखकर

  • कुर्यात् - करना चाहिए

  • व्यायामम् - व्यायाम

  • अन्यथा - नहीं तो

  • रोगम् - बीमारी

  • आप्नुयात् - प्राप्त करें

अन्वय

(मनुष्यः) वयोबलशरीराणि देशकालाशनानि च समीक्ष्य (एव) व्यायामं कुर्यात्। अन्यथा (सः) रोगम् आप्नुयात्।

मनुष्य ने (अपनी) उम्र, ताकत, शरीर, (जहां रह रहा हैं वह) इलाका, समय (ऋतु वगैरह) और भोजन (इन सभी चीजों को) देख कर ही व्यायाम करना चाहिए। नहीं तो वह रोग को प्राप्त करेगा।

यह प्रस्तुत पाठ का अन्तिम श्लोक है। इस श्लोक में कहा गया है कि हमें व्यायाम तो करना ही चाहिए लेकिन कुछ चीजों का ध्यान रखकर। और वे चीजें हैं - वयः (उम्र), बलम् (ताकत), शरीरम्, देशः (इलाका), कालः (समय/ऋतु) और अशनम् (भोजन)।

वयः

उम्र के हिसाब से हमें अलग अलग व्यायाम पद्धति चुननी चाहिए। छोटे बच्चें और वयोवृद्ध लोगों को ज्यादा मुश्किल और भारी भरकम व्यायाम नहीं करने चाहिए। और युवकों को भी अपनी मर्यादा में रहकर ही व्यायाम करना चाहिए।

बलम्

अपने शरीर में जितनी शक्ति है उसके अनुसार ही व्यायाम करना चाहिए। अगर दो मित्रों ने व्यायाम करना आरम्भ किया और उसमें से एक को यदि पता चले की मेरा मित्र (दूसरा) ज्यादा व्यायाम करता है। तो हो सकता है कि पहला ईर्ष्या से उसके जितना ही व्यायाम करने की चेष्टा करेगा। परन्तु ध्यान रहे कि हर कोई काम करता है तो अपनी क्षमता के अनुरूप काम करता है। हमने पिछले दो श्लोक यानी श्लोक क्र॰ ९ और श्लोक क्र॰ १० में देखा है कि हमे व्यायाम कितना और कितनी देर तक करना चाहिए। उसके अनुसार ही सभी को व्यायाम करना चाहिए। और हमारे मित्र को या अन्य किसी को देखर उसके जितना व्यायाम तो कभी भी नहीं करना चाहिए।

शरीरम्

प्रत्येक व्याक्ति का शरीर अद्वितीय (Unique) होता है। प्रत्येक व्यक्ति की जीवनशैली भिन्न होती है। कुछ लोग दिन में ज्यादातर समय बैठे रहते हैं और कुछ लोगों का काम ही दिन भर घूमने का होता है। तो इस स्थिति में यह बात स्पष्ट है कि दोनों को भी अलग अलग प्रकार के व्यायाम की आवश्यकता होगी।

आजकल मैं ने ज्यादातर विद्यालयों में पढने वाले छात्रों का निरीक्षण करके यह पाया की छात्र अधिकांश समय तक अपनी गर्दन नीचे झुकाकर रहते हैं।

पढते समय गर्दन नीचे।

लिखते समय गर्दन नीचे।

मोबाईल इत्यादि पर गर्दन नीचे।

कक्षा में शिक्षक डांटे तो गर्दन नीचे।

अब ऐसी परिस्थिति में छात्रों को सोचना चाहिए की हम दिन भर में ऊपर कितनी बार देखते हैं? अगर नहीं तो उन्हे ऐसे व्यायाम भी अपने जीवनकाल में शामिल करने चाहिए जिनमें ऊपर देखने का काम पडे।

देशः

हम जहाँ रहते हैं उस प्रदेश में जिस किस्म का अनाज और फल उगते हैं वे हमारे लिए श्रेष्ठ होते हैं। परन्तु यदि हम किसी कारणवश अपना प्रदेश छोड कर अन्य जगह जाएं तो वहां का अन्न संभवतः हमें हजम ना हो। जैसे कि उत्तर भारत में गेहूं ज्यादातर खाया जाता है तो इसके विपरीत दक्षिण भारत में चावल। इस परिस्थिति में हमे खुद का सन्तुलन बनाए रखना जरूरी होता है। अपचन होने की स्थिति में अपने व्यायाम पर भी इस का परिणाम जरूर होगा।

साथ ही साथ प्रदेश बदलने से मौसम में भी बदलाव देखने को मिलता है। उत्तर भारत किंचित शीतल है तो दक्षिण भारत में उष्णता ज्यादा है। और हम इस बात का अनुभव कर सकते हैं कि शीतलता के समय हम अधिक व्यायाम करन में आनन्त मिलता है। परन्तु उतना ही व्यायाम उष्णता के समय करना मुष्किल हो जाता है। इसीलिए प्रस्तुत श्लोक कहता है कि देश को भी देख कर व्यायाम करना चाहिए।

कालः

यहाँ पर काल से मतलब है काल के अनुसार वातावरण में होने वाले बदलाव। यानी ऋतुएं। अलग अलग ऋतुकालों में बदलते वातावरण का परिणाम शरीर पर होते रहता है। और हमें व्यायाम में उसके अनुरूप बदलाव करने पडते हैं।

अशनम्

अशन इस शब्द का अर्थ होता है भोजन। यानी हम क्या खाते हैं? कितना खाते हैं? इस चीज को देखकर हमें व्यायाम करना चाहिए। अब यह तो जाहिर सी बात है कि यदि हम ज्यादा खाना खाते हैं, भारी भरकम खाना खाते हैं तो हमे व्यायाम भी ज्यादा ही करना पडेंगा।

और अगर हम इन बातों को देख कर व्यायाम नहीं करेंगे, तो हमें बीमारियों का शिकार बनना पडेंगा।

व्याकरण

  • वयोबलशरीराणि

    • वयः + बल। इति उत्वसन्धिः।

    • वयः च बलं च शरीरं च - वयोबलशरीराणि। इति इतरेतर - द्वन्द्व - समासः।

  • देशकालाशनानि

    • काल + अशनानि। इति सवर्णदीर्घसन्धिः।

    • देशः च कालः च अशनं च - देशकालाशनानि। इत इतरेतर - द्वन्द्व - समासः।

  • समीक्ष्य - सम् + ईक्ष् + ल्यप्। उपसर्गः + धातुः + प्रत्ययः।

  • कुर्याद् व्यायामम् - कुर्यात् + व्यायामम्। इति जश्त्वसन्धिः। कचटतप - गजडदब।

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