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सपनों के से दिन ,Class10, Sapno Ke Se Din

पाठ का सार सपनों के-से दिन कहानी दुनिया के हर आम बच्चे की कहानी है। इस कहानी में लेखक ने उस हर छोटे-बड़े पहलू को उजागर किया है जो हम शायद नज़र अंदाज कर देते हैं। लेखक ने इस कहानी को साधारण व सरल भाषा में लिखा है। यह कहानी आज़ादी से पहले हमारे गाँव के जीवन, सोच, परिवेश, उनकी धारणाओं, समस्याओं आदि को उजागर करती है। यह कहानी एक गाँव के जीवन से आरंभ होती है। जहाँ बच्चों के लिए पढ़ना घर में कैद करने के समान है। इसका कारण शिक्षा का उबाव होना नहीं है अपितु शिक्षा देने वाले अध्यापकों के सख्त व्यवहार के कारण है। विद्यालय वह स्थान है जहाँ विद्यार्थी आकार व रूप पाता है। उसके उज्जवल भविष्य की नींव उसका विद्यालय रखता है। यहाँ दो अध्यापकों के माध्यम से कवि हमारे आगे समस्या व निवारण दोनों रखता है। विद्यालय में एक प्रधानाचार्य शर्मा जी हैं जो नम्र व स्नेही स्वभाव के हैं। उनका मानना है की बच्चों की उम्र सख्त व्यवहार करके समझना नहीं है अपितु उन्हें स्नेह व प्रेम से समझना है। वह बच्चों के साथ सख्तपूर्ण व्यवहार व सज़ा देने के सख्त विरोधी है। इसी कारण बच्चे उनसे प्यार करते हैं। उनकी कक्षा में पढ़ते हैं। उसके विपरीत उनके विद्यालय के दूसरे अध्यापक प्रीतम चंद हैं जो बच्चों के सख्त व्यवहार ही नहीं करते हैं अपितु उन्हें कड़ी व क्रूरपूर्ण सज़ा भी देते हैं। सभी बच्चे उनसे डरते हैं व उनके व्यवहार के कारण पढ़ाई से दूर भागते हैं। शर्मा जी जिस दिन उनकी इस तरह के व्यवहार से अवगत होते हैं, वह उनकी सेवा स्थागित कर देते हैं। यह कहानी आज के अध्यापकों को एक संदेश देती है की बच्चों का बाल मन स्नेह देने के लिए है सख्त सजा देने के लिए नहीं।




सपनों के-से दिन

लेखक – गुरदयाल सिंह


पाठ में भी लेखक अपने बचपन की यादों को बताया है। किस तरह से वह और उसके साथी स्कूल के दिनों में मस्ती करते थे और वे अपने अध्यापकों से कितना डरते थे। बचपन में लेखक अपने अध्यापक का व्यवहार समझ नहीं पाते थे जिसका वर्णन उन्होंने इस पाठ में किया है।




महत्वपूर्ण बिंदु :---


1)बचपन में लेखक अगर खेलकर धूल, मिट्टी से सने चोट खाकर, बहते खून के साथ घर आते तो चोट कैसे लगी ये पूछने की बजाए मां और बड़ी बहन और पिटाई कर देते थे।

2)कई बच्चों के पिता तो इतने गुस्से वाले होते कि जब बच्चे को पीटना शुरू करते तो वह यह भी नहीं देखते कि बच्चे के नाक और मुँह से खून बहने लगा है और ये भी नहीं पूछते कि उसे चोट कहाँ लगी है। परन्तु इतनी बुरी पिटाई होने के बाद भी दूसरे दिन सभी बच्चे फिर से खेलने के लिए चले जाते।

3)लेखक जब स्कूल अध्यापक बनने के लिए प्रशिक्षण ले रहे थे, और जब वहाँ लेखक ने बच्चों के मन के विज्ञान का विषय पढ़ा तब उन्हें बच्चों के मन की बातें समझ में आईं।

4)उस समय लेखक जिस समुदाय से आते थे वहाँ बच्चों की पढ़ाई को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता था, ज्यादा से ज्यादा पंडित घनश्याम जी के पास हिसाब-किताब सीखने भेज दिया जाता था।

5)लेखक को बचपन में विद्यालय के छोटे कमरे में बैठकर पढ़ना बिलकुल पसंद नहीं था उसके बजाए वे फूलों को देखते रहते और चपरासी से नजर बचाकर उन्हें तोड़ लेते।

6)गर्मी की छुट्टियों में लेखक अपने नाना के घर जाते जहाँ दिनभर सिर्फ धमाचौकडी़ और मस्ती करते। और छुट्टियोँ खत्म होने के ठीक पहले डर के कारण लेखक और उसके साथी खेल-कूद के साथ-साथ तालाब में नहाना भी भूल जाते। अध्यापकों ने जो काम छुट्टियों में करने के लिए दिया होता था, उसको कैसे करना है इस बारे में सोचने लगते।

7)'ओमा' उन सभी बच्चों का ‘नेता’ हुआ करता था।

8)श्री मदनमोहन शर्मा जी विद्यालय के हेडमास्टर और अंग्रेजी के शिक्षक थे जो सभी बच्चों से प्यार से बातें करते। वहीं पी०टी० के शिक्षक मास्टर प्रीतम चंद काफी कड़क मिजाज़ या स्वभाव वाले थे।

9)लेखक को विद्यालय में सबसे ज्यादा स्काउटिंग करना पसंद था। अगर कोई विद्यार्थी गलती नहीं करता तो पीटी सर अपनी चमकीली आँखें हलके से झपकाते और सभी को शाबाशी देते । उनकी एक शाबाशी लेखक और उसके साथियों को ऐसे लगने लगती जैसे उन्होंने किसी फ़ौज के सभी पदक या मैडल जीत लिए हों।

10)लेखक के लिए हर साल पुरानी पुस्तकें हेडमास्टर शर्मा जी ला देते। जिससे लेखक का विद्यालय जाना बना रहा। उनके घर में किसी को भी विद्यालय और पढ़ाई-लिखाई से कोई मतलब नहीं था।

11)प्रितम सर के द्वारा बच्चों को सजा देते देखा तो

हेडमास्टर शर्मा जी ने पीटी सर प्रीतमचंद को निलंबित कर दिया।

12)छात्रों को जो शिक्षक मार-मारकर चमड़ी तक उधेड़ देते उन्हीं शिक्षक को अपने तोतों से मीठी-मीठी बातें करते देख लेखक आश्चर्यचकित हो जाते।






पाठ के बोध प्रश्न :—


1.कोई भी भाषा आपसी व्यवहार में बाधा नहीं बनती–पाठ के किस अंश से यह सिद्ध होता है?

उत्तर- कोई भी भाषा आपसी व्यवहार में बाधा नहीं बनती, यह पाठ के इस अंश से सिद्ध होता है :—“हमारे आधे से अधिक साथी राजस्थान तथा हरियाणा से आकर मंडी में व्यापार या दुकानदारी करते थे। जब वे छोटे थे तो उनकी बोली हमें बहुत कम समझ आती थी, इसलिए उनके कुछ शब्द सुन कर हमें हँसी आती थी, लेकिन खेलते समय सभी एक-दूसरे की बात समझ लेते।"लेखक के इस कथन से यह चलता है कि कोई भी भाषा छोटे बच्चों के आपसी व्यवहार में बाधक नहीं होती ।


2.पीटी साहब की ‘शाबाश’ फ़ौज के तमगों-सी क्यों लगती थी? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर- पीटी साहब प्रीतमचंद बहुत हीं कड़क शिक्षक थे। उन्हें किसी ने भी कभी हँसते नहीं देखा और ना हीं किसी की प्रशंसा करते थे। सभी छात्र उनसे भयभीत रहते थे। वे बच्चों की मार-मारकर चमड़ी तक उधेड़ देते थे। छोटे-छोटे बच्चे यदि थोड़ा-सा भी अनुशासन को तोड़ते तो वे उन्हें कठोर सजा देते थे। ऐसे कठोर स्वभाव वाले पीटी सर बच्चों के द्वारा गलती न करने पर अपनी चमकीली आँखें हल्के से झपकाते हुए उन्हें शाबाश कहते थे और उनकी यह शाबाशी बच्चों को फौज़ के सारे तमगों को जीतने के समान लगती थी।


3.नयी श्रेणी में जाने और नयी कापियों और पुरानी किताबों से आती विशेष गंध से लेखक का बालमन क्यों उदास हो उठता था?

उत्तर- नयी श्रेणी में जाकर लेखक का बालमन उदास हो जाता था, क्योंकि उसे अन्य लड़कों द्वारा पढ़ी हुई पुरानी पुस्तकें हीं पढ़नी पड़ती थीं। उनके लिए पुरानी पुस्तकें हेडमास्टर साहब अपने किसी अमीर विद्यार्थी से मांगकर ला देते थे, क्योंकि लेखक के परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी और बच्चों के पढ़ाई-लिखाई पर परिवार के लोग कोई ध्यान नहीं देते थे वहीं कक्षा के अन्य बच्चे नई कक्षा में नई किताबें खरीदते थे। लेखक का बालमन नई काॅपियों तथा पुरानी किताबों से आती विशेष गंध से उदास हो उठता था।


4.स्काउट परेड करते समय लेखक अपने को महत्त्वपूर्ण ‘आदमी’ फ़ौजी जवान क्यों समझने लगता था?

उत्तर- लेखक गुरदयाल सिंह फौज़ी बनना चाहते थे। उन्होंने फुल बूट और शानदार वर्दी पहने लेफ्ट-राइट करते फौज़ी जवानों की परेड को देखा था। इसी कारण स्काउट परेड के समय धोबी की धुली वर्दी, पाॅलिश किए बूट तथा जुराबों को पहन वह स्वयं को फौज़ी जवान हीं समझते थे । स्काउट परेड में जब पीटी मास्टर लेफ्ट राइट की आवाज या सीटी बजाकर मार्च करवाया करते थे तथा उनके राइट टर्न, लेफ्ट टर्न या अबाऊट टर्न कहने पर लेखक अपने छोटे-छोटे बूटों की एड़ियों पर दाएँ-बाएँ या एक कदम पीछे मुड़कर बूटों की ठक-ठक की आवाज़ के साथ करते। विद्यार्थी स्वयं को एक महत्त्वपूर्ण फौजी समझते और सारी परेड अनुशासित होकर करते ।


5.हेडमास्टर शर्मा जी ने पीटी साहब को क्यों मुअत्तल कर दिया?

उत्तर- पीटी के सर चौथी कक्षा को फ़ारसी भी पढ़ाते थे। एक दिन बच्चे उनके द्वारा दिया गए शब्द-रूप को याद कर नहीं आए। इस पर उन्होंने बच्चों को पीठ ऊँची करके मुर्गा बनने का आदेश दिया, तो उस समय वहाँ हेडमास्टर सर आ गए। यह दृश्य देखकर हेडमास्टर काफी क्रोधित हो उठे। इसी कारण उन्होंने पीटी सर को मुअत्तल कर दिया।



6.लेखक के अनुसार उन्हें स्कूल खुशी से भागे जाने की जगह न लगने पर भी कब और क्यों उन्हें स्कूल जाना अच्छा लगने लगा?

उत्तर- ‘सपनों के-से दिन’ पाठ के लेखक गुरदयाल सिंह के अनुसार उन्हें तथा उनके साथियों को बचपन में स्कूल जाना अच्छा नहीं लगता था। चौथी कक्षा तक कुछ बच्चों को छोड़कर बाकी सभी साथी रोते-चिल्लाते हुए स्कूल जाया करते थे। स्कूल में होने वाली पिटाई तथा मास्टरों की डाँट-फटकार के कारण स्कूल उन्हें एक नीरस व भयानक स्थान प्रतीत होता था, जहाँ जाने में उन्हें काफी डर लगता था।

इसके बावजूद कई बार ऐसा भी होता था कि जब उन्हें स्कूल जाना अच्छा भी लगता था। यह मौका तब आता था जब उनके पीटी सर स्काउटिंग का अभ्यास करवाते थे। वे लड़कों के हाथों में नीली-पीली झंडियाँ पकड़ा देते थे, वे वन-टू-थ्री करके इन झंड़ियों को ऊपर-नीचे करवाते थे। हवा में लहराती यह झंडिया बड़ी अच्छी लगती थीं। अच्छा काम करने पर पीटी सर की शाबाशी भी मिलती थी, तब यही कठोर पीटी सर बच्चों को बहुत अच्छे लगते थे। ऐसे अवसर पर स्कूल आना अच्छा व सुखद प्रतीत होता था।



7.लेखक अपने छात्र जीवन में स्कूल से छुिट्टयों में मिले काम को पूरा करने के लिए क्या-क्या योजनाएँ बनाया करता था और उसे पूरा न कर पाने की स्थिति में किसकी भाँति ‘बहादुर’ बनने की कल्पना किया करता था?

उत्तर- लेखक अपने छात्र जीवन में स्कूल से छुट्टियों में मिले काम को पूरा करने के लिए तरह-तरह की योजनाएँ बनाया करते थे। जैसे-हिसाब के मास्टर जी द्वारा दिए गए 200 सवालों को पूरा करने के लिए रोज़ दस सवाल हल किए जाने पर 20 दिन में पूरे हो जाएँगे, लेकिन खेल-कूद में छुट्टियाँ खत्म होने लगतीं, तो मास्टर जी की पिटाई का डर सताने लगता। फिर लेखक रोज़ के 15 सवाल पूरे करने की योजना बनाता, तब उन्हें छुट्टियाँ भी बहुत कम लगने लगतीं और दिन बहुत छोटे लगने लगते तथा स्कूल का भय भी बढ़ने लगता। ऐसे में लेखक पिटाई से डरने के बावजूद भी अन्य बच्चों की भाँति बहादुर बनने की कल्पना करने लगते , जो छुट्टियों को काम पूरा करने की बजाय मास्टर जी से पीटना ही अधिक बेहतर समझते थे।


8.पाठ में वर्णित घटनाओं के आधार पर पीटी सर की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।

उत्तर पाठ के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि पीटी सर प्रीतमचंद बाहर से कड़क परन्तु अंदर से बहुत सरल अध्यापक थे। उनके व्यक्तित्व की विशेषताएँ कुछ इस प्रकार हैं :—

पीटी सर प्रीतमचंद का बाह्य व्यक्तित्व कुछ इस प्रकार का था - वे ठिगने कद के थे, उनका शरीर दुबला-पतला पर गठीला था। उनका चेहरा चेचक के दागों से भरा था। उनकी आँखें बाज की तरह तेज़ थीं। वे खाकी वर्दी, चमड़े के पंजों वाले बूट पहनते थे। उनके बूटों की ऊँची एड़ियों के नीचे खुरियाँ लगी रहती थीं। बूटों के अगले हिस्से में पंजों के नीचे मोटी सिरों वाले कील ठुके रहती थी।


2. आंतरिक व्यक्तित्व


प्रीतमचंद एक कुशल अध्यापक थे। वे चौथी श्रेणी के बच्चों को फ़ारसी पढ़ाया करते थे। वे मौखिक अभिव्यक्ति एवं याद करने पर बल दिया करते थे। वे छात्रों को दिन-रात एक करके पढ़ाई करने की शिक्षा दिया करते थे।

वे एक कुशल प्रशिक्षक थे। वे छात्रों को स्काउट और गाइड की ट्रेनिंग दिया करते थे वे छात्रों से विभिन्न रंग की झंडियाँ पकड़ाकर हाथ ऊपर-नीचे करके अच्छी ट्रेनिंग दिया करते थे। उनके इस प्रशिक्षण कार्य से छात्र सदा प्रसन्न रहा करते थे। वे उस पर छात्रों द्वारा सही काम करने पर शाबाशी भी देते थे।

प्रीतमचंद अनुशासन प्रिय होने के कारण कठोर अनुशासन बनाए रखते थे। वे छात्रों को भयभीत रखते थे। यदि कोई लड़का अपना सिर इधर-उधर हिला लेता था तो वे उस पर बाघ की तरह झपट पड़ते थे। प्रार्थना करते समय भी वह अनुशासनहीन छात्रों को दंडित करते थे।

प्रीतम चंद बाहर से कठोर किंतु अंदर से कोमल थे। उन्होंने अपने घर में तोते पाल रखे थे, वे उससे बात करते थे और उसे भीगे हुए बादाम भी खिलाया करते थे। इसके अलावा वे छात्रों द्वारा सही काम किए जाने पर उन्हें शाबाशी भी देते थे।



9.विद्यार्थियों को अनुशासन में रखने के लिए पाठ में अपनाई गई युक्तियों और वर्तमान में स्वीकृत मान्यताओं के संबंध में अपने विचार प्रकट कीजिए।

उत्तर- विद्यार्थियों को अनुशासन में रखने के लिए पाठ में अपनाई युक्तियाँ इस प्रकार से हैं—पीटी सर बच्चों को मार-मारकर चमड़ी तक उधेड़ देते थे। तीसरी-चौथी कक्षा के बच्चे अगर थोड़ा-सा भी अनुशासन भंग कर देते , तो उन्हें कठोर सज़ा मिलती थी, पी टी सर का मानना था कि इससे विद्यार्थी के जीवन में अनुशासन की नींव मजबूत होगी । इसके साथ-साथ विद्यार्थियों को प्रोत्साहित तथा उत्साहित करने के लिए उन्हें ‘शाबाशी’ भी दी जाती थी। लेकिन आज के समय में स्वीकृत मान्यताएँ इसके विपरीत हैं। शिक्षकों को आज विद्यार्थियों की पीटाई करने का अधिकार नहीं है इसलिए विद्यार्थी भी निडर होकर अनुशासनहीनता की ओर बढ़ रहे हैं, क्योंकि आज के विद्यार्थी पहले के विद्यार्थी की भाँति शिक्षकों से डरते नहीं हैं। इसके लिए विद्यालय और माता-पिता दोनों जिम्मेदार हैं। बच्चों में अनुशासन का विकास करने के लिए उन्हें शारीरिक व मानासिक यातना देना उचित नहीं। उन्हें प्रेमपूर्वक नैतिक मूल्य सिखाए जाने चाहिए, जिनसे उनमें स्वानुशासन का विकास हो सके।



10.बचपन की यादें मन को गुदगुदाने वाली होती हैं विशेषकर स्कूली दिनों की। अपने अब तक के स्कूली जीवन की खट्टी-मीठी यादों को लिखिए।

उत्तर- विद्यार्थी अपने सुनहरे यादों को लिखेंगे।


11.प्रायः अभिभावक बच्चों को खेल-कूद में ज़्यादा रुचि लेने पर रोकते हैं और समय बरबाद न करने की नसीहत देते हैं। बताइए-


(क) खेल आपके लिए क्यों ज़रूरी हैं?


उत्तर) खेल प्रत्येक उम्र के बच्चे के लिए जरूरी हैं। खेलने से बच्चे के शारीरिक और मानसिक विकास में वृद्धि होती है। इनसे बच्चे में सामूहिक रूप से काम करने की भावना का विकास होता है। बच्चे में प्रतिस्पर्धा तथा प्रतियोगिता के लिए आगे बढ़ने की होड़ और दौड़ में भाग लेने की इच्छा पैदा होती है। खेलों में भाग लेने से बच्चे को अपना तथा अपने देश का नाम रोशन करने का भी अवसर प्राप्त हो सकता है।


(ख) आप कौन से ऐसे नियम-कायदों को अपनाएँगे जिससे अभिभावकों को आपके खेल पर आपत्ति न हो?


उत्तर) मैं अपने अभिभावकों के लिए वही नियम और कायदों को अपनाऊँगा/अपनाउंगी , जिनसे उनकी भावनाओं को ठेस न पहुँचे इसलिए हमें समय पर खेलना और समय पर खेलकर वापस घर आ जाना चाहिए । खेलने के साथ-साथ पढ़ाई का भी पूरा ध्यान रखना चाहिए । खेलने और पढ़ाई को अनुशासन और समय में बांधकर उसके अनुसार हीं कार्य करना चाहिए। जिससे अभिभावकों को खेलने पर कोई आपत्ति ना हो।




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